भारतवर्ष की सती-साध्वी नारियों में अनसूयाजी का स्थान बहुत ऊँचा है.इनका जन्म अत्यंत उच्च कुल हुआ था.ब्रह्माजी के मानस पुत्र परम
तपस्वी महर्षि अत्रिको इन्होने पति के रूप में प्राप्त किया था. अपनी सतत सेवा तथा प्रेमसे इन्होने महर्षि अत्रिके हृदयको जीत लिया था.नारदजी बोले-‘माताजी! क्या बताउं,कुछ बताते नहीं बनता.अबकी बार मैं घूमता हुआ चित्रकूटकी ओर चला गया .वहाँ मैं महर्षि अत्रि के आश्रम पर पहुंचा. माताजी! मैं तो महर्षि की पत्नी अनसूयाजी का दर्शन करके कृतार्थ हो गया. तीनों लोकोंमें उनके समान पतिव्रता और कोई नहीं है.’ लक्ष्मीजी को यह बात बहुत बुरी लगी.उन्होंने पुछा-‘नारद!क्या वः मुझसे भी बढकर पतिव्रता है?’नार्द्जीने कहा-‘माताजी! आप ही नहीं, तीनों लोकोंमें कोई भी स्त्री सती अनसूया की तुलनामें किसी भी गिनतीमें नहीं है,’इसी प्रकार देवर्षि नारद ने सती और सरस्वती के पास जाकर उनके मन में सती अनसूया के प्रति ईर्ष्या की अग्नि जला दी अंत में तीनों देवियों ने त्रिदेवों से हठ करके उन्हें सती अनसूया के सतीत्व की परीक्षा लेने के लिए बाध्य कर दिया.
ब्रह्मा,विष्णु और महेश महर्षि अत्रिके आश्रम पर पहुँचे.तीनों देव मुनिदेव में थे, उस समय महर्षि अत्रि अपने आश्रम पर नहीं थे. अतिथि के रूप में आये हुए त्रिदेवों का सती अनसूया ने स्वागत-सत्कार करना चाह, किन्तु त्रिदेवों ने उसे अस्वीकार कर दिया,
सती अनसूया ने उनसे पुछा-‘ मुनियों! मुझसे कौन-सा ऐसा अपराध हो गया, जो आपलोग मेरे द्वारा की हुई पूजको ग्रहण नहीं कर रहे हैं?’मुनियों ने कहा –‘देवि !यदि आप बिना वस्त्र के हमारा आतिथ्य करें तो हम आपके यहाँ भिक्षा ग्रहण करेंगे, यह सुनके सती अनसूया सोच में पद गईं, उन्होंने ध्यान लगाकर देखा तो सारा रहस्य उनकी समझ में आ गया,वे बोलीं- ‘मैं आप लोगों का विवस्त्र होकर आतिथ्य करूंगी.यदि मैं सच्ची पतिव्रता हूँ और मैंने कभी भी कामभाव से किसी पर-पुरूष का चिन्तन नहीं किया हो तो आप तीनों छ:-छ: माहके बच्चे बन जाएँ.’
पतिव्रता का इतना कहना था कि त्रिदेव छ:-छ: माह के बच्चे बन गये. माता ने विवस्त्र होकर उन्हें अपना स्तनपान कराया और उन्हें पालनेमें खेलने के लिए डाल दिया इस प्रकार त्रिदेव माता अनसूया के वात्सल्य प्रेमके बंदी बन गये, इधर जब तीनों देवियोंने देखा कि हमारे पति तो आये ही नहीं तो वे चिंतित हो गयीं आखिर तीनों अपने पतियों का पता लगाने के लिए चित्रकूट गयीं संयोगसे वहीं नारदजी से उनकी मुलाकात हो गयी. त्रिदेवियों उनसे अपने पतियों का पता पूछा. नारद ने कहा कि वे लोग तो आश्रम में बालक बनकर खेल रहे हैं.त्रिदेवियों ने अनसूयाजी से आश्रम प्रवेश करने की आज्ञा मांगी. अनसूयाजी ने उनसे उनका परिचय पूछा. त्रिदेवियों ने कहा-‘माताजी! हम तो आपकी बहुएँ हैं. आप हमें क्षमा कर दें और हमारे पतियों को लौटा दें, अनसूया जी का हृदय द्रवित हो गया उन्होंने बच्चों पर जल छिरककर उन्हें उनका पूर्व रूप प्रदान किया और अंतत: उन त्रिदेवों की पूजा-स्तुति की.त्रिदेवों ने प्रसन्न होकर अपने-अपने अंशों से अनसूया के यहाँ पुत्ररूप में प्रकट होने का वरदान दिया.