हाडा रानी का अमर बलिदान
बूंदी के हाडा राजवंश में हाडा रानी ने जन्म लिया. हाडा रानी की गाथा आज भी इतिहास के पन्नों पर स्वर्णाक्षरों में अंकित है.
हाडा रानी का विवाह वीर सरदार चंदावत के साथ हुआ. हाडा रानी अल्पायु होने पर भी सर्वगुण संपन्न थी. रूप-सौन्दर्य में अनुपम होने के साथ- साथ वह पाक कला में भी निपुण थी. उसे विशेष रूप से अस्त्र- शस्त्र चलाने सिखाए गए थे. वह एक कुलवधू की भांति पूरे परिवार का माँ करना जानती थी. कुल मिला कर हाडा रानी अद्वितीय थी.
एक दिन महाराणा राजसिंह का दरवार सजा था. अन्य सामंतों के साथ सरदार चंदावत भी उपस्थित थे. मुख पर अब भी चार दिन पूर्व हुए विवाह की लुनाई छाई थी.राजसिंह के पास एक पुरोहित प्रभावती का संदेश लाया.
प्रभावती रूपनगर की राजकुमारी थी. उसके पिता का नाम था विक्रमसिंह सोलंकी. औरंगजेब ने उसे पत्र लिखा कि वह प्रभावती से विवाह करना चाहता है. अमुक तिथि को प्रभावती, अंत:पुर में पहुँच जाए.जबकि प्रभावती मुगलों से घृणा करती थी. उसने महाराणा राजसिंह की वीरता के बहुत चर्चे सुने थे. बस प्रभावती ने मन ही मन राजसिंह समान वीर को अपना पति माँ लिया. अब जब मुगल बेगम बनने का संदेश पहुंचा तो प्रभावती ने राजसिंह से सहायता मांगी व अपने दिल का हाल खोल कर रख दिया.
उस दिन दरबार में उसी प्रभावती का पत्र पढ़ा गया. महाराजा ने सभी से पूछा –
“वीरो, आप इस पत्र के विषय में क्या कहते हैं?”
समवेत स्वर में उत्तर गूँज उठा –
“हम अपने प्राणों की बजी लगा कर भी रानी प्रभावती की रक्षा करेंगे.”
महाराज बोले –
“मैं आपके वीरोचित उत्तर से बहुत प्रसन्न हुआ. किन्तु यह कार्य इतना सरल नहीं है. मुगल सम्राट ने भी कोई कच्ची गोलियाँ नहीं खेलीं.यदि एक बार उसकी विशाल सेना प्रभावती को लेने के लिए रूपनगर पहुँच गई तो राजकुमारी की रक्षा करना कठिन हो गेगा. केवल कूटनीति से ही विजय निश्चित है.”
“मैं थोड़ी-सी सेना के साथ रूपनगर जाता हूँ. आप में से कोई सरदार सम्राट की सेना का मार्ग रोक क्र रखे. बस इसी उपाय से राजकुमारी को बचाया जा सकता है.”
आप में से कौन –सा वीर इस काम का बीड़ा उठेगा?” (प्रचलित प्रथा के अनुसार किसी कार्य की हामी भरने वाला व्यक्ति सामने रखा पान का बीड़ा मुँह में धर लेता था )
यूँ तो सभा में एक से बढ़ कर एक वीर उपस्थित थे किन्तु शत्रु पक्ष भी कम न था. औरंगजेव का उन दिनों काफी आतंक था. उसकी सेना को रोकने का मतलब मौत को दावत देने के समान था. चारों ओर सन्नाटा छाया था. कोई भी सरदार स्वयं सेना संचालन को प्रस्तुत न था. महाराज दुखी हृदय से बोले –
“लगता है मेवाड़ की वीरप्र्स्व धरती बाँझ हो गई है. अब यहाँ के क्षत्रियों में अन्याय होता देख कर खून नहीं खुलता. अब मेवाड़ माता का सदा गर्वोन्मत्त रहने वाला मस्तक नीचा हो गया है. क्या यही मेवाड़ का भविष्य है?”
“नहीं महाराज ! मेवाड़ में आज भी वीर सपूतों की कमी नहीं है.
हम राणा के आन की रक्षा के लिए प्राणों का बलिदान कर सकते हैं. मानता हूँ कि मुझमें इतनी शक्ति नहीं है किन्तु मेरे रक्त की एक –एक बूँद पर मातृभूमि का अधिकार है.” कहते-कहते वीर सरदार चंदावत ने पान का बीड़ा खा लिया.
महाराणा चंदावत के वीरतापूर्ण कृत्य से बहुत प्रसन्न हुए. चारों ओर जोर – शोर से युद्ध की तैयारियाँ होने लगीं. हाडा रानी तक भी यह समाचार पहुँच गया कि उसके पति युद्धक्षेत्र में जाने वाले हैं. उन दिनों भारत में वीर ललनाएँ उत्पन्न होती थीं. वे ऐसी स्थिति में नौ –नौ आंसू बहाने के स्थान पर पति को उत्साहित करती थी ताकि वह धर्म व कर्तव्य की रक्षा कर सके.
हाडा रानी ने ऐसे अपना सौभाग्य समझा कि उसे अपने पति को युद्ध वेश में सजाने का अवसर मिलेगा तभी चंदावत ने अंत:पुर में प्रवेश किया और बोला –
“प्रिये ! विदा लेने का समय आ पहुंचा है. मुझे युद्ध का संचालन करना है.”
हाडा रानी सहर्ष बोली-
“एक क्षत्रिय को युद्धक्षेत्र में जाने का आदेश मिला है आप जाकर अपनी मातृभूमि की रक्षा करें. मैं माँ भवानी से आपकी विजय के लिए प्राथर्ना करूंगी.”
रानी ने अपने हाथों से सरदार को वीर वेश में सुसज्जित किया और कहा –
“जाइए, विजयश्री आपकी प्रतीक्षा कर रही है.”
चंदावत ने विदा ली किन्तु कुछ ही देर बाद वह वापिस आ गया और विचलित स्वर में बोला –
“प्राणेश्वरी ! मेरे वापिस लौटने की संभावनाए बहुत कम हैं. निश्चय ही मुझे वीरगति प्राप्त होगी. इसलिए अंतिम विदा लेता हूँ.”
हाडा रानी ने पति से कहा –
“आप प्राणों की ममता त्याग दें व युद्ध करें ईश्वर सदैव न्यायी का साथ देता है. आप भी सत्य के लिए युद्ध कर रहे हैं इसलिए आप अवश्य ही विजयी होंगे .”
चंदावत के हृदय में कुछ और ही विचार उमड़ रहे थे. वह सोच रहा था “यदि मैं युद्ध में मारा गया तो हो सकता है मेरी प्रानप्रिय कुपथ गामिनी हो जाए, तब तो यह दोनों कुलों को कलंकित कर देगी.”
रानी ने उसके विचारों में बाघा देकर कहा –
“आपके मुख के भावों से लगता है कि कोई चिंता भीतर ही भीतर आपको खा रही है. कृपया अपना कष्ट मुझसे कहें.”
चंदावत को अपनी शंका जाहिर करने के लिए शब्द नहीं मिल रहे थे फिर भी उसने हिम्मत कर कहा –
“ मैं तो चला परन्तु तुम दोनों कुलों की लाज रखना,”
यह बात सुनते ही हाडा रानी के तन- बदन में आग लग गई. उसने बुमुश्किल अपने को संयत कर कहा –
“आपने मुझसे इतनी बड़ी बात कह दी .क्या मैं क्षत्राणी नहीं हूँ ?
मुझे अपने कर्तव्य का पालन करना अच्छी तरह आता है. आप इस ओर से निश्चिन्त होकर जाएँ.”
चंदावत अपनी सेना के पास पहुंचा. सैनिकों ने सरदार को देखते ही गगनभेदी नारों से स्वागत किया –
महाराणा की जय !
सरदार चंदावत विजयी हों !
एकलिंग भगवान की जय !
चंदावत अपने घोड़े पर सवार हुआ किन्तु कानों में अब भी हाडा रानी के शब्द गूँज रहे थे,”---स्त्रियाँ अपने धर्म का निर्वाह भली-भांति कर सकती हैं. कोई भी दुष्ट उनके पतिव्रत को भंग नहीं कर सकता. यदि कोई ऐसा प्रयत्न करता भी है तो उसे तीखी कटार का मजा चखना पड़ता है.”
हाडा रानी के शब्द सरदार के भीतर ही भीतर तूफान मचा रहे थे. नवविवाहिता वधू को छोड़ कर जाने की कल्पना ने उनके उत्साह को मंद कर रखा था. किसी काम के लिए तैयार हो जाना व उसे पूरा कर दिखाने में बहुत अंतर होता है.
जब सेना नगर द्वार के समीप पहुंची तो चंदावत ने अपने पुरोहित को बुलवा कर कहा –
“आप मेरी पत्नी से जाकर कहें कि वह पति की इज्जत मिट्टी में न मिलने दे.”
इधर हाडा रानी पति की भावी विजय की प्रार्थना में डूबी थी. पुरोहित को देखते ही उसने यथायोग्य स्वागत किया व पूछा –
“आपने कैसे कष्ट किया ? क्या कोई विशेष प्रयोजन था ?”
पुरोहित ने आशीर्वाद देकर कहा –
“मैं आपके पति का संदेश लाया हूँ. उन्होंने कहा है कि आप दोनों कुलों की लाज रखना.”
इन शब्दों ने हाडा रानी का सिर झुका दिया. वह जान गई कि पति की अकर्मण्यता व उत्साहहीनता का कारण वह स्वयं ही है. जब तक सरदार का ध्यान अपनी पत्नी की ओर लगा रहेगा वह युद्ध नहीं कर पाएगा.फिर मानो हाडा रानी ने मन ही मन कुछ निश्चय कर लिया व पुरोहित से बोली – “दासी अभी आपको एक थाली में भेंट दे जाएगी. उसे मेरी ओर से पतिदेव को दे देना.”
कह कर रानी भीतर गई व एक पत्र लिखा तथा अपना सिर धड़ से जुदा कर दिया. पुरोहित एक थाली में रानी का कटा हुआ सिर व पत्र लेकर पहुंचा. चंदावत ने पत्र पढ़ा, लिखा था –
“स्वामी ! आपके पथ में मैं ही बाधा बन गई हूँ. मेरी मृत्यु ही आपको चिंतामुक्त कर सकती है. आपकी आज्ञानुसार मैंने अपने कर्तव्य का पालन किया. अब आप अपना धर्म निभाएँ. यदि युधक्षेत्र में वीरगति प्राप्त हुई तो संसार में आपकी कीर्ति अमर होगी परन्तु भूले से भी शत्रु को पीठ मत दिखाना.”
आपकी हाडा रानी चंदावत ने हाडा रानी का कटा सिर गले में धारण किया व उसके पत्र को चूमा. युद्ध में उन्होंने अपने युद्ध कौशल से मुगलों को भी झुका दिया व वीरगति को प्राप्त हुए.
क्या संसार में आज भी हाडा रानी सी ललनाएँ हैं ?
बूंदी के हाडा राजवंश में हाडा रानी ने जन्म लिया. हाडा रानी की गाथा आज भी इतिहास के पन्नों पर स्वर्णाक्षरों में अंकित है.
हाडा रानी का विवाह वीर सरदार चंदावत के साथ हुआ. हाडा रानी अल्पायु होने पर भी सर्वगुण संपन्न थी. रूप-सौन्दर्य में अनुपम होने के साथ- साथ वह पाक कला में भी निपुण थी. उसे विशेष रूप से अस्त्र- शस्त्र चलाने सिखाए गए थे. वह एक कुलवधू की भांति पूरे परिवार का माँ करना जानती थी. कुल मिला कर हाडा रानी अद्वितीय थी.
एक दिन महाराणा राजसिंह का दरवार सजा था. अन्य सामंतों के साथ सरदार चंदावत भी उपस्थित थे. मुख पर अब भी चार दिन पूर्व हुए विवाह की लुनाई छाई थी.राजसिंह के पास एक पुरोहित प्रभावती का संदेश लाया.
प्रभावती रूपनगर की राजकुमारी थी. उसके पिता का नाम था विक्रमसिंह सोलंकी. औरंगजेब ने उसे पत्र लिखा कि वह प्रभावती से विवाह करना चाहता है. अमुक तिथि को प्रभावती, अंत:पुर में पहुँच जाए.जबकि प्रभावती मुगलों से घृणा करती थी. उसने महाराणा राजसिंह की वीरता के बहुत चर्चे सुने थे. बस प्रभावती ने मन ही मन राजसिंह समान वीर को अपना पति माँ लिया. अब जब मुगल बेगम बनने का संदेश पहुंचा तो प्रभावती ने राजसिंह से सहायता मांगी व अपने दिल का हाल खोल कर रख दिया.
उस दिन दरबार में उसी प्रभावती का पत्र पढ़ा गया. महाराजा ने सभी से पूछा –
“वीरो, आप इस पत्र के विषय में क्या कहते हैं?”
समवेत स्वर में उत्तर गूँज उठा –
“हम अपने प्राणों की बजी लगा कर भी रानी प्रभावती की रक्षा करेंगे.”
महाराज बोले –
“मैं आपके वीरोचित उत्तर से बहुत प्रसन्न हुआ. किन्तु यह कार्य इतना सरल नहीं है. मुगल सम्राट ने भी कोई कच्ची गोलियाँ नहीं खेलीं.यदि एक बार उसकी विशाल सेना प्रभावती को लेने के लिए रूपनगर पहुँच गई तो राजकुमारी की रक्षा करना कठिन हो गेगा. केवल कूटनीति से ही विजय निश्चित है.”
“मैं थोड़ी-सी सेना के साथ रूपनगर जाता हूँ. आप में से कोई सरदार सम्राट की सेना का मार्ग रोक क्र रखे. बस इसी उपाय से राजकुमारी को बचाया जा सकता है.”
आप में से कौन –सा वीर इस काम का बीड़ा उठेगा?” (प्रचलित प्रथा के अनुसार किसी कार्य की हामी भरने वाला व्यक्ति सामने रखा पान का बीड़ा मुँह में धर लेता था )
यूँ तो सभा में एक से बढ़ कर एक वीर उपस्थित थे किन्तु शत्रु पक्ष भी कम न था. औरंगजेव का उन दिनों काफी आतंक था. उसकी सेना को रोकने का मतलब मौत को दावत देने के समान था. चारों ओर सन्नाटा छाया था. कोई भी सरदार स्वयं सेना संचालन को प्रस्तुत न था. महाराज दुखी हृदय से बोले –
“लगता है मेवाड़ की वीरप्र्स्व धरती बाँझ हो गई है. अब यहाँ के क्षत्रियों में अन्याय होता देख कर खून नहीं खुलता. अब मेवाड़ माता का सदा गर्वोन्मत्त रहने वाला मस्तक नीचा हो गया है. क्या यही मेवाड़ का भविष्य है?”
“नहीं महाराज ! मेवाड़ में आज भी वीर सपूतों की कमी नहीं है.
हम राणा के आन की रक्षा के लिए प्राणों का बलिदान कर सकते हैं. मानता हूँ कि मुझमें इतनी शक्ति नहीं है किन्तु मेरे रक्त की एक –एक बूँद पर मातृभूमि का अधिकार है.” कहते-कहते वीर सरदार चंदावत ने पान का बीड़ा खा लिया.
महाराणा चंदावत के वीरतापूर्ण कृत्य से बहुत प्रसन्न हुए. चारों ओर जोर – शोर से युद्ध की तैयारियाँ होने लगीं. हाडा रानी तक भी यह समाचार पहुँच गया कि उसके पति युद्धक्षेत्र में जाने वाले हैं. उन दिनों भारत में वीर ललनाएँ उत्पन्न होती थीं. वे ऐसी स्थिति में नौ –नौ आंसू बहाने के स्थान पर पति को उत्साहित करती थी ताकि वह धर्म व कर्तव्य की रक्षा कर सके.
हाडा रानी ने ऐसे अपना सौभाग्य समझा कि उसे अपने पति को युद्ध वेश में सजाने का अवसर मिलेगा तभी चंदावत ने अंत:पुर में प्रवेश किया और बोला –
“प्रिये ! विदा लेने का समय आ पहुंचा है. मुझे युद्ध का संचालन करना है.”
हाडा रानी सहर्ष बोली-
“एक क्षत्रिय को युद्धक्षेत्र में जाने का आदेश मिला है आप जाकर अपनी मातृभूमि की रक्षा करें. मैं माँ भवानी से आपकी विजय के लिए प्राथर्ना करूंगी.”
रानी ने अपने हाथों से सरदार को वीर वेश में सुसज्जित किया और कहा –
“जाइए, विजयश्री आपकी प्रतीक्षा कर रही है.”
चंदावत ने विदा ली किन्तु कुछ ही देर बाद वह वापिस आ गया और विचलित स्वर में बोला –
“प्राणेश्वरी ! मेरे वापिस लौटने की संभावनाए बहुत कम हैं. निश्चय ही मुझे वीरगति प्राप्त होगी. इसलिए अंतिम विदा लेता हूँ.”
हाडा रानी ने पति से कहा –
“आप प्राणों की ममता त्याग दें व युद्ध करें ईश्वर सदैव न्यायी का साथ देता है. आप भी सत्य के लिए युद्ध कर रहे हैं इसलिए आप अवश्य ही विजयी होंगे .”
चंदावत के हृदय में कुछ और ही विचार उमड़ रहे थे. वह सोच रहा था “यदि मैं युद्ध में मारा गया तो हो सकता है मेरी प्रानप्रिय कुपथ गामिनी हो जाए, तब तो यह दोनों कुलों को कलंकित कर देगी.”
रानी ने उसके विचारों में बाघा देकर कहा –
“आपके मुख के भावों से लगता है कि कोई चिंता भीतर ही भीतर आपको खा रही है. कृपया अपना कष्ट मुझसे कहें.”
चंदावत को अपनी शंका जाहिर करने के लिए शब्द नहीं मिल रहे थे फिर भी उसने हिम्मत कर कहा –
“ मैं तो चला परन्तु तुम दोनों कुलों की लाज रखना,”
यह बात सुनते ही हाडा रानी के तन- बदन में आग लग गई. उसने बुमुश्किल अपने को संयत कर कहा –
“आपने मुझसे इतनी बड़ी बात कह दी .क्या मैं क्षत्राणी नहीं हूँ ?
मुझे अपने कर्तव्य का पालन करना अच्छी तरह आता है. आप इस ओर से निश्चिन्त होकर जाएँ.”
चंदावत अपनी सेना के पास पहुंचा. सैनिकों ने सरदार को देखते ही गगनभेदी नारों से स्वागत किया –
महाराणा की जय !
सरदार चंदावत विजयी हों !
एकलिंग भगवान की जय !
चंदावत अपने घोड़े पर सवार हुआ किन्तु कानों में अब भी हाडा रानी के शब्द गूँज रहे थे,”---स्त्रियाँ अपने धर्म का निर्वाह भली-भांति कर सकती हैं. कोई भी दुष्ट उनके पतिव्रत को भंग नहीं कर सकता. यदि कोई ऐसा प्रयत्न करता भी है तो उसे तीखी कटार का मजा चखना पड़ता है.”
हाडा रानी के शब्द सरदार के भीतर ही भीतर तूफान मचा रहे थे. नवविवाहिता वधू को छोड़ कर जाने की कल्पना ने उनके उत्साह को मंद कर रखा था. किसी काम के लिए तैयार हो जाना व उसे पूरा कर दिखाने में बहुत अंतर होता है.
जब सेना नगर द्वार के समीप पहुंची तो चंदावत ने अपने पुरोहित को बुलवा कर कहा –
“आप मेरी पत्नी से जाकर कहें कि वह पति की इज्जत मिट्टी में न मिलने दे.”
इधर हाडा रानी पति की भावी विजय की प्रार्थना में डूबी थी. पुरोहित को देखते ही उसने यथायोग्य स्वागत किया व पूछा –
“आपने कैसे कष्ट किया ? क्या कोई विशेष प्रयोजन था ?”
पुरोहित ने आशीर्वाद देकर कहा –
“मैं आपके पति का संदेश लाया हूँ. उन्होंने कहा है कि आप दोनों कुलों की लाज रखना.”
इन शब्दों ने हाडा रानी का सिर झुका दिया. वह जान गई कि पति की अकर्मण्यता व उत्साहहीनता का कारण वह स्वयं ही है. जब तक सरदार का ध्यान अपनी पत्नी की ओर लगा रहेगा वह युद्ध नहीं कर पाएगा.फिर मानो हाडा रानी ने मन ही मन कुछ निश्चय कर लिया व पुरोहित से बोली – “दासी अभी आपको एक थाली में भेंट दे जाएगी. उसे मेरी ओर से पतिदेव को दे देना.”
कह कर रानी भीतर गई व एक पत्र लिखा तथा अपना सिर धड़ से जुदा कर दिया. पुरोहित एक थाली में रानी का कटा हुआ सिर व पत्र लेकर पहुंचा. चंदावत ने पत्र पढ़ा, लिखा था –
“स्वामी ! आपके पथ में मैं ही बाधा बन गई हूँ. मेरी मृत्यु ही आपको चिंतामुक्त कर सकती है. आपकी आज्ञानुसार मैंने अपने कर्तव्य का पालन किया. अब आप अपना धर्म निभाएँ. यदि युधक्षेत्र में वीरगति प्राप्त हुई तो संसार में आपकी कीर्ति अमर होगी परन्तु भूले से भी शत्रु को पीठ मत दिखाना.”
आपकी हाडा रानी चंदावत ने हाडा रानी का कटा सिर गले में धारण किया व उसके पत्र को चूमा. युद्ध में उन्होंने अपने युद्ध कौशल से मुगलों को भी झुका दिया व वीरगति को प्राप्त हुए.
क्या संसार में आज भी हाडा रानी सी ललनाएँ हैं ?