Wednesday, 6 April 2016

Sacrifice of Hada Rani

हाडा रानी का अमर बलिदान 

बूंदी के हाडा राजवंश में हाडा रानी ने जन्म लिया. हाडा रानी की गाथा आज भी इतिहास के पन्नों पर स्वर्णाक्षरों में अंकित है.
हाडा रानी का विवाह वीर सरदार चंदावत के साथ हुआ. हाडा रानी अल्पायु होने पर भी सर्वगुण संपन्न थी. रूप-सौन्दर्य में अनुपम होने के साथ- साथ वह पाक कला में भी निपुण थी. उसे विशेष रूप से अस्त्र- शस्त्र चलाने सिखाए गए थे. वह एक कुलवधू की भांति पूरे परिवार का माँ करना जानती थी. कुल मिला कर हाडा रानी अद्वितीय थी.


एक दिन महाराणा राजसिंह का दरवार सजा था. अन्य सामंतों के साथ सरदार चंदावत भी उपस्थित थे. मुख पर अब भी चार दिन पूर्व हुए विवाह की लुनाई छाई थी.राजसिंह के पास एक पुरोहित प्रभावती का संदेश लाया.
प्रभावती रूपनगर की राजकुमारी थी. उसके पिता का नाम था विक्रमसिंह सोलंकी. औरंगजेब ने उसे पत्र लिखा कि वह प्रभावती से विवाह करना चाहता है. अमुक तिथि को प्रभावती, अंत:पुर में पहुँच जाए.जबकि प्रभावती मुगलों से घृणा करती थी. उसने महाराणा राजसिंह की वीरता के बहुत चर्चे सुने थे. बस प्रभावती ने मन ही मन राजसिंह समान वीर को अपना पति माँ लिया. अब जब मुगल बेगम बनने का संदेश पहुंचा तो प्रभावती ने राजसिंह से सहायता मांगी व अपने दिल का हाल खोल कर रख दिया.
उस दिन दरबार में उसी प्रभावती का पत्र पढ़ा गया. महाराजा ने सभी से पूछा –
“वीरो, आप इस पत्र के विषय में क्या कहते हैं?”
समवेत स्वर में उत्तर गूँज उठा –
“हम अपने प्राणों की बजी लगा कर भी रानी प्रभावती की रक्षा करेंगे.” 
महाराज बोले –
मैं आपके वीरोचित उत्तर से बहुत प्रसन्न हुआ. किन्तु यह कार्य इतना सरल नहीं है. मुगल सम्राट ने भी कोई कच्ची गोलियाँ नहीं खेलीं.यदि एक बार उसकी विशाल सेना प्रभावती को लेने के लिए रूपनगर पहुँच गई तो राजकुमारी की रक्षा करना कठिन हो गेगा. केवल कूटनीति से ही विजय निश्चित है.”
“मैं थोड़ी-सी सेना के साथ रूपनगर जाता हूँ. आप में से कोई सरदार सम्राट की सेना का मार्ग रोक क्र रखे. बस इसी उपाय से राजकुमारी को बचाया जा सकता है.”
आप में से कौन –सा वीर इस काम का बीड़ा उठेगा?” (प्रचलित प्रथा के अनुसार किसी कार्य की हामी भरने वाला व्यक्ति सामने रखा पान का बीड़ा मुँह में धर लेता था )
यूँ तो सभा में एक से बढ़ कर  एक वीर उपस्थित थे किन्तु शत्रु पक्ष भी कम न था. औरंगजेव का उन दिनों काफी आतंक था. उसकी सेना को रोकने का मतलब मौत को दावत देने के समान था. चारों ओर सन्नाटा छाया था. कोई भी सरदार स्वयं सेना संचालन को प्रस्तुत न था. महाराज दुखी हृदय से बोले –
“लगता है मेवाड़ की वीरप्र्स्व धरती बाँझ हो गई है. अब यहाँ के क्षत्रियों में अन्याय होता देख कर  खून नहीं खुलता. अब मेवाड़ माता का सदा गर्वोन्मत्त रहने वाला मस्तक नीचा हो गया है. क्या यही मेवाड़ का भविष्य है?”
नहीं महाराज ! मेवाड़ में आज भी वीर सपूतों की कमी नहीं है.
हम राणा के आन की रक्षा के लिए प्राणों का बलिदान कर  सकते हैं. मानता हूँ कि मुझमें इतनी शक्ति नहीं है किन्तु मेरे रक्त की एक –एक बूँद पर मातृभूमि का अधिकार है.” कहते-कहते वीर सरदार चंदावत ने पान का बीड़ा खा लिया.
महाराणा चंदावत के वीरतापूर्ण कृत्य से बहुत प्रसन्न हुए. चारों ओर जोर – शोर से युद्ध की तैयारियाँ होने लगीं. हाडा रानी तक भी यह समाचार पहुँच गया कि उसके पति युद्धक्षेत्र में जाने वाले हैं. उन दिनों भारत में वीर ललनाएँ उत्पन्न होती थीं. वे ऐसी स्थिति में नौ –नौ आंसू बहाने  के स्थान पर पति को उत्साहित करती थी ताकि वह धर्म व कर्तव्य की रक्षा कर सके.
हाडा रानी ने ऐसे अपना सौभाग्य समझा कि उसे अपने पति को युद्ध वेश में सजाने का अवसर मिलेगा तभी चंदावत ने अंत:पुर में प्रवेश किया और बोला –
“प्रिये ! विदा लेने का समय आ पहुंचा है. मुझे युद्ध का संचालन करना है.”
हाडा रानी सहर्ष बोली-
“एक क्षत्रिय को युद्धक्षेत्र में जाने का आदेश मिला है आप जाकर अपनी मातृभूमि की रक्षा करें. मैं माँ भवानी से आपकी विजय के लिए प्राथर्ना करूंगी.”
रानी ने अपने हाथों से सरदार को वीर वेश में सुसज्जित किया और कहा –
“जाइए, विजयश्री आपकी प्रतीक्षा कर  रही है.”
चंदावत ने विदा ली किन्तु कुछ ही देर बाद वह वापिस आ गया और विचलित स्वर में बोला –
“प्राणेश्वरी ! मेरे वापिस लौटने की संभावनाए बहुत कम हैं. निश्चय ही मुझे वीरगति प्राप्त होगी. इसलिए अंतिम विदा लेता हूँ.”
हाडा रानी ने पति से कहा –
“आप प्राणों की ममता त्याग दें व युद्ध करें ईश्वर सदैव न्यायी का साथ देता है. आप भी सत्य के लिए युद्ध कर  रहे हैं इसलिए आप अवश्य ही विजयी होंगे .”
चंदावत के हृदय में कुछ और ही विचार उमड़ रहे थे. वह सोच रहा था “यदि मैं युद्ध में मारा गया तो हो सकता है मेरी प्रानप्रिय कुपथ गामिनी  हो जाए, तब तो यह दोनों कुलों को कलंकित कर देगी.”
रानी ने उसके विचारों में बाघा देकर कहा –
आपके मुख के भावों से लगता है कि कोई चिंता भीतर ही भीतर आपको खा रही है. कृपया अपना कष्ट मुझसे कहें.”
चंदावत को अपनी शंका जाहिर करने के लिए शब्द नहीं मिल रहे थे फिर भी उसने हिम्मत कर  कहा –
“ मैं तो चला परन्तु तुम दोनों कुलों की लाज रखना,” 
यह बात सुनते ही हाडा रानी के तन- बदन में आग लग गई. उसने बुमुश्किल अपने को संयत कर कहा –
“आपने मुझसे इतनी बड़ी बात कह दी .क्या मैं क्षत्राणी नहीं हूँ ?
मुझे अपने कर्तव्य का पालन करना अच्छी तरह आता है. आप इस ओर से निश्चिन्त होकर जाएँ.”
चंदावत अपनी सेना के पास पहुंचा. सैनिकों ने सरदार को देखते ही गगनभेदी नारों से स्वागत किया –
महाराणा की जय !
सरदार चंदावत विजयी हों !
एकलिंग भगवान की जय !
चंदावत अपने घोड़े पर सवार हुआ किन्तु कानों में अब भी हाडा रानी के शब्द गूँज रहे थे,”---स्त्रियाँ अपने धर्म का निर्वाह भली-भांति कर  सकती हैं. कोई भी दुष्ट उनके पतिव्रत को भंग नहीं कर सकता. यदि कोई ऐसा प्रयत्न करता भी है तो उसे तीखी कटार का मजा चखना पड़ता है.”
हाडा रानी के शब्द सरदार के भीतर ही भीतर तूफान मचा रहे थे. नवविवाहिता वधू को छोड़ कर  जाने की कल्पना ने उनके उत्साह को मंद कर रखा था. किसी काम के लिए तैयार हो जाना व उसे पूरा कर  दिखाने में बहुत अंतर होता है.
जब सेना नगर द्वार के समीप पहुंची तो चंदावत ने अपने पुरोहित को बुलवा कर  कहा –
“आप मेरी पत्नी से जाकर कहें कि वह पति की इज्जत मिट्टी में न मिलने दे.”
इधर हाडा रानी पति की भावी विजय की प्रार्थना में डूबी थी. पुरोहित को देखते ही उसने यथायोग्य स्वागत किया व पूछा –
“आपने कैसे कष्ट किया ? क्या कोई विशेष प्रयोजन था ?”
पुरोहित ने आशीर्वाद देकर कहा –
“मैं आपके पति का संदेश लाया हूँ. उन्होंने कहा है कि आप दोनों कुलों की लाज रखना.”
इन शब्दों ने हाडा रानी का सिर झुका दिया. वह जान गई कि पति की अकर्मण्यता व उत्साहहीनता का कारण  वह स्वयं ही है. जब तक सरदार का ध्यान अपनी पत्नी की ओर लगा रहेगा वह युद्ध नहीं कर पाएगा.फिर मानो हाडा रानी ने मन ही मन कुछ निश्चय कर लिया व पुरोहित से बोली – “दासी अभी आपको एक थाली में भेंट दे जाएगी. उसे मेरी ओर से पतिदेव को दे देना.”
कह कर  रानी भीतर गई व एक पत्र लिखा तथा अपना सिर धड़ से जुदा कर दिया. पुरोहित एक थाली में रानी का कटा हुआ सिर व पत्र लेकर पहुंचा. चंदावत ने पत्र पढ़ा, लिखा था –
“स्वामी ! आपके पथ में मैं ही बाधा बन गई हूँ. मेरी मृत्यु ही आपको चिंतामुक्त कर सकती है. आपकी आज्ञानुसार मैंने अपने कर्तव्य का पालन किया. अब आप अपना धर्म निभाएँ. यदि युधक्षेत्र में वीरगति प्राप्त हुई तो संसार में आपकी कीर्ति अमर होगी परन्तु भूले से भी शत्रु को पीठ मत दिखाना.”
आपकी हाडा रानी चंदावत ने हाडा रानी का कटा सिर गले में धारण किया व उसके पत्र को चूमा. युद्ध में उन्होंने अपने युद्ध कौशल से मुगलों को भी झुका दिया व वीरगति को प्राप्त हुए.
क्या संसार में आज भी हाडा रानी सी ललनाएँ हैं ?      

Wednesday, 23 March 2016

Great Women Padmavati Wife of Danveer Karna

दानवीर कर्ण की महान पत्नी पद्मावती 

स्त्री के जीवन में मातृत्व से बड़ा सुख कोई नहीं होता.संसार में बुरी से बुरी स्त्री भी माता बन कर  अपनी सन्तान का अमंगल नहीं चाहती.
वह कुपुत्र के भी सभी रोग-शोक अपने ऊपर ले लेना चाहती है किन्तु भारतीय परिवेश में ऐसी माताएँ भी हुई हैं जिन्होंने धर्म व वचन की रक्षा हेतु अपने प्रिय के प्राणोत्सर्ग करने में भी संकोच नहीं किया.
ऐसी ही स्त्रियाँ में माता पद्मावती का नाम आता है. यह महादानी कर्ण की पत्नी थीं. 

कर्ण के द्वार से कोई भी याचक खाली हाथ नहीं लौटता था. यदि एक बार वह किसी वस्तु को देने की स्वीकृति दे देता तो उसे अवश्य देता.
एक दिन महाराज कर्ण दोपहर के भोजन के लिए निकलने लगे तो एक ब्राह्मण पधारे. द्वारपाल ने उन्हें महल में जाने की आज्ञा दे दी. महाराज ने पूछा –
“कहिए विप्रवर ! मैं आपकी क्या सहायता कर सकता हूँ?”
“कल एकादशी का व्रत था. आज उपवास खोलना है किन्तु आपसे इच्छित भोजन चाहता हूँ.”
“महात्मन ! आज्ञा दें, जैसे आज्ञा देंगे वही भोजन परोसा जाएगा .”
“न राजन ! यह कार्य आपके वश में नहीं.”
“आप ऐसा न कहें, मैं अपने प्राणों का बलिदान करके भी आपकी इच्छा पूरी करूंगा. मैं सब कुछ करने को तैयार हूँ. आप नि:संकोच अपने दिल की बात कहें.”
“आप व रानी पद्मावती दोनों मिल कर अपने पुत्र वृषकेतु का मांस काटकर मुझे खिलाएँ तभी मुझे तृप्ति होगी. वह मांस रानी ही पकाएंगी.”
कर्ण स्तब्ध हो उठा. इतना तो वह जान गया कि नर मांस खाने का लोभ किसी ब्राह्मण को नहीं होता. अवश्य ही कोई छद्य वेश में आया है किन्तु वह प्रकट में बोले –
“आपकी आज्ञा शिरोधार्य, महात्मन! आप मेरा मांस खाकर संतुष्ट हों.”
“न महाराज ! केवल वृषकेतु के मांस का आस्वादन करूँगा अन्यथा द्वार से रीता ही लौट जाउँगा.”
कर्ण के समक्ष और कोई उपाय न था. उसने विचार – “धर्म व व्रत के पालन के लिए सन्तान का बलिदान भी करना पड़े तो नि:संकोच क्र देना चाहिए हो सकता है ईश्वर ने वृषकेतु के भाग्य में यही लिखा हो. उसका शरीर यदि किसी ब्राह्मण की संतुष्टि का कारण बनता है तो वह भी स्वर्ग पाएगा.”
उन्होंने ब्राह्मण से कहा –
“आप स्नान- भजन के पश्चात् भोजन के लिए तैयार रहें. आपको आपका मनोवांछित भोजन ही मिलेगा.”
तत्पश्चात कर्ण अंत:पुर में पहुंचा. वहाँ पद्मावती व वृषकेतु किसी स्रोत का पाठ कर रहे थे. पतिव्रता स्त्री अपने पति के मनोभाव जान गई. उसे अनुभव हुआ कि पति अवश्य ही किसी गहरी समस्या से ग्रस्त हैं.
कर्ण ने वृषकेतु को पुचकार कर भोजन करवाने भेज दिया व पत्नी से सारी घटना कह सुनाई . पद्मावती बेहोश होकर गिर पड़ी एक माँ के कानों में इसी बात सुनाई दे तो वह कैसे सह  सकती है? कर्ण ने उसे उठाया व कहा –
“तुम मोह त्याग कर मेरे धर्म को निभाओ. अतिथि तो देवता समान होता है. हम देवता की इच्छा का निरादर नहीं कर सकते.”
“ब्राह्मण को नरमांस का लोभ ! प्रभु कहीं आप मेरी परीक्षा तो नहीं ले रहे. मैं एक माँ होकर अपने ही बच्चे का मांस कैसे पकाऊ ? क्या यही दुष्कर्म मेरे भाग्य में बड़ा था ?”
पद्मावती के विलाप से अंत:पुर गूंज उठा. कुछ क्षण पश्चात् उसने स्वयं को संयत किया और पति से बोली –
“आप ब्राह्मण को सादर  बिठाएँ मैं अभी आती हूँ.”
पद्मावती ने ध्यान लगा कर चित्त को शांत किया व समस्त मोह त्याग कर पुत्र वध के लिए प्रस्तुत हुई.
पति-पत्नी ने कसाईयों  की भांति वृषकेतु के शरीर  के टुकड़े-टुकड़े कर दिए ब्राह्मण के आगे भोजन परोसा तो वह बोला –
“ वाह ! क्या बढिया सुगंध आ रही है. जाओ, बाहर से किसी बालक को बुला लाओ. पहला कौर उसे खिलाऊंगा.”
कर्ण बालक की खोज में बाहर गए तो देखा कि वृषकेतु बच्चों के साथ खेल रहा है. उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा.
ब्राह्मण के वेश में स्वयं नारायण कर्ण व उसकी पत्नी की परीक्षा लेने आए थे. पद्मावती ने पति-पत्नी की मर्यादा के पालन के लिए मातृत्व की सभी मर्यादाएँ तोड़ दीं व अपने अप्रतिम त्याग के बल पर संसार में अमर  हो गई. 

Wednesday, 10 February 2016

Great Sacrifice of Panna Dhay

पन्ना धाय का महान त्याग 

नारी के अनेक रूप हैं वह माँ, प्रेमिका, पत्नी, बहन, मित्र आदि रूप में समाज का कल्याण करती है व अपनी सद्वृत्तियों द्वारा प्रकाश फैलाती है.
आपने पन्ना धाय का नाम अवश्य सुना होगा. वह एक राजपूत महिला थी. उसकी बफादारी व कर्तव्य परायणता आज भी याद की जाती है. उसका अनुपम बलिदान युगों-युगों तक संसार को प्रेरणा देता रहेगा.


मातृभूमि की रक्षा के लिए उसने हंसते-हंसते अपने लाल को न्योछावर कर दिया.पन्ना धाय का चरित्र अपने आप में बेजोड़ है. मालिक के पुत्र व भावी राजा की इक्षा के लिए उसने अपने प्राण तक संकट में डाल दिए .
महाराजा संग्राम सिंह एक न्यायप्रिय शासक थे, उनकी म्रत्यु के पश्चात् विक्रम सिंह ने चितौड़ का राज-घाट संभाला.संभाला कहने की बजे कहना चाहिए कि उसने राज-घाट का सत्यानाश किया. वह एक अदूरदर्शी,निकम्मा व आलसी शासक था 
भला ऐसे राजा को कोई कब तक सह  सकता है? उसके छोटे भाई उदयसिंह को राज्य का उत्तराधिकारी घोषित किया व विक्रम सिंह  को राजगद्दी से हटा दिया गया. उदयसिंह की आयु उस समय छ: वर्ष के लगभग थी. 
राजमाता कर्णावती  भी स्वर्ग सिधार चुकी थी. उदयसिंह का लालन-पालन पन्ना धाय की गोद में हो रहा था. उदयसिंह भावी राजा था इसलिए उस पर अनेक लोगों की कुदुष्टि भी थी, ऐसा ही एक व्यक्ति था ‘बनवीर’.
उसे उदयसिंह के संरक्षण का दायित्व सौंपा गया था किन्तु कभी-कभी रक्षक ही भक्षक बन बैठता है. बनवीर ने सोचा –
“यदि मैं उदयसिंह को मरवा दूँ तो आसानी से गद्दी हासिल कर  सकता हूँ. यूं भी मेरे खिलाफ बोलने की हिम्मत किसी में नहीं है.”
बनवीर क्रूर था. उसे उदयसिंह को मारने की योजना बनाने में अधिक समय नहीं लगा.
किसी तरह यह समाचार पन्ना धाय तक पहुँच गया. वह उदयसिंह को अपने बेटे से भी बढकर चाहती थी क्योंकि वह चितौड़ का भावी शासक था.
उसने कुछ सोच-विचार के पश्चात् बहुत बड़ा फैसला क्र दिया. पन्ना का अपना पुत्र भी उदयसिंह का हमउम्र था.
उसने उदयसिंह को दूध में थोड़ी अफीम पिला क्र गहरी नींद में सुला दिया व फूल-पत्तों से भरे टोकरे में छिपकर अपनी विश्वस्त दासी से सारी बात कह दी,\दासी चुपके से उस टोकरे को उठा ले गई व पन्ना के बताए गए स्थान पर प्रतीक्षा करने लगी. उसी रात बनवीर ने अपनी योजनानुसार उदयसिंह के कक्ष में प्रवेश किया.
उदयसिंह के बिस्तर पर पन्ना का अपना पुत्र चंदन सो रहा था. पन्ना ने उसे ही उदय के कपड़े पहना कर  ढाँप कर सुला दिया था.
बनवीर को भला पन्ना से क्या भय था. उसने बेधडक होकर कमरे में प्रवेश किया व सोते हुए चंदन को उदयसिंह के भुलावे में आकर तलवार से काट दिया.
माँ पन्ना का जिगर चाक हो गया. उसका अपना पुत्र उसकी ही आँखों के आगे खत्म हो गया.
पन्ना की दरियादिली देखिए उसने उफ तक न की. आँखों से निकलते आंसुओं को रोक दिया. गले से उमड़ती रूलाई को भीतर ही दवा दिया व अपने होंठ काट लिए.
आज तक अपनी मातृभूमि के शासक के लिए ऐसी कुर्बानी किसी ने न दी होगी. एक माँ स्वयं तो बलिदान हो सकती है किन्तु अपने पुत्र को खरोंच भी नहीं सह पाती किन्तु पन्ना ने अपने ही हाथों अपना चंदन मातृभूमि की भेंट चढ़ा दिया.
बनवीर के बाहर जाते ही उसने चंदन की लाश को उठाया और वहाँ पहुँच गई जहाँ दासी उसकी प्रतीक्षा क्र रही थी. वीरा नदी के तट पर पन्ना धाय ने अपने पुत्र का अंतिम संस्कार किया व उदय को गोद में छिपा कर  आश्रय की खोज में भटकने लगी. अंत में वह आशाशाह के पास पहुंची व उसकी गोद में उदय को डाल कर  कहा –
“लो, अपने राजा को संभालो.”
इधर बनवीर को  असलियत पता चली तो वह क्रोध के मारे  बौखला गया किन्तु पाप का घड़ा फूटते देर नहीं लगती. कुछ समय पश्चात् ही वह मारा गया.
उदयसिंह चितौड़ की गद्दी पर आसीन हुए. पन्ना धाय का बलिदान सार्थक हुआ. उदयसिंह ने ‘माँ’ कह कर उसकी चरण-रज माथे से लगा ली.

Thursday, 14 January 2016

Great Saint Meera Bai

महान संत मीराबाई  
कृष्ण भक्त की परंपरा में मीराबाई का स्थान अन्यतम है. वह श्रीकृष्ण को पति रूप में पूजती थी. इस भक्ति के कारण उन्हें पग –पग पर अनेक कष्ट सहने पड़े किन्तु मीरा ने अपनी टेक नहीं छोडी.
मीरा के पिता का नाम रतनसिंह था. मीरा का पालन – पोषण उनके दादा जी राव दादू जी की देख – रेख में हुआ क्योंकि मीरा के बाल्यकाल में ही उनकी माता का स्वर्गवास हो गया था.


मीरा को बचपन से ही कृष्ण से बहुत लगाव था. वह कृष्ण की मूर्ति को सीने से लगाए रखती. उसका विवाह महाराणा सांगा के पुत्र भोजराज से हुआ. मीरा मेवाड़ की महारानी बनी.
उसने इतना ऊँचा पड़ पाने पर भी कृष्ण की भक्ति नहीं त्यागी. पति की असमी मृत्यु होने पर ससुराल पक्ष की ओर से कष्ट बढ़ते गए. वे मीरा की भक्ति को ढोंग तथा परपुरुषों से मिलने का बहाना समझते थे. उन्हें मीरा का कीर्तन में नाचना-गाना व साधु –संतों से मिलकर भगवदचर्या करना अप्रिय था.
मीरा के देवर विक्रम ने उसकी हत्या करने के लिए साँप व विष का प्याला भेजा किन्तु ईश्वर की कृपा से साँप शालिग्राम में बदल गया व विष भी अमृत हो गया.
मीरा के प्रभु – प्रेम के आगे कोई भी कुचाल टिक न सकी. वह तो गोपाल की दीवानी होक उसके भजन रचती व गाती.
उसे महलों का तनिक भी मोह न था. अनेक तीर्थस्थलों का भ्रमण करते – करते वह प्रसिद्ध संत जीव गोस्वामी जी से मिलने पहुंची. उन्होंने कहलवाया – “मैं किसी स्त्री से नहीं मिलता “
मीरा ने उत्तर दिया – “मैं तो ब्रजभूमि में एक ही पुरूष को जानती हूँ जो कि स्वयं कृष्ण है. वह दूसरा पुरूष कहाँ से आया ?”
यह सुनकर जीव गोस्वामी की ऑंखें खुल गई और वे मीरा के दर्शनार्थ नंगे पाँव दौड़ पड़े.
इधर मीरा के मेवाड़ छोड़ देने से प्राकृतिक आपदाओं ने घेरा डाल दिया. सभी इस बात के लिए विक्रम को दोषी ठहराने लगे तो उसने दूतों के जरिए मीरा को बुलावा भेजा.
मीरा इन दिनों द्वारिकापुरी में थी वह रणछोड़ जी के मन्दिर में नाचने – गाने लगी और नृत्य करते – करते उसी विग्रह में समा गई.
मीरा के पड़ आज भी उसी श्रद्धा व भक्ति से गाए व सुने जाते हैं.वह कहती हैं –
               पायो  जी मैंने राम रतन धन पायो
               वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरू 
                किरपा कर अपनाओ 
               पायो  जी मैंने राम रतन  धन पायो  
               जन्म –जन्म की पूंजी पाई 
               जग में सभी खवाओ 
               पायो  जी मैंने राम रतन  धन पायो  
                मीरा के प्रभु गिरिधर नागर 
               हरष – हरष जस गाओ 
              पायो  जी मैंने राम रतन  धन पायो.