दानवीर कर्ण की महान पत्नी पद्मावती
स्त्री के जीवन में मातृत्व से बड़ा सुख कोई नहीं होता.संसार में बुरी से बुरी स्त्री भी माता बन कर अपनी सन्तान का अमंगल नहीं चाहती.
वह कुपुत्र के भी सभी रोग-शोक अपने ऊपर ले लेना चाहती है किन्तु भारतीय परिवेश में ऐसी माताएँ भी हुई हैं जिन्होंने धर्म व वचन की रक्षा हेतु अपने प्रिय के प्राणोत्सर्ग करने में भी संकोच नहीं किया.
ऐसी ही स्त्रियाँ में माता पद्मावती का नाम आता है. यह महादानी कर्ण की पत्नी थीं.
कर्ण के द्वार से कोई भी याचक खाली हाथ नहीं लौटता था. यदि एक बार वह किसी वस्तु को देने की स्वीकृति दे देता तो उसे अवश्य देता.
एक दिन महाराज कर्ण दोपहर के भोजन के लिए निकलने लगे तो एक ब्राह्मण पधारे. द्वारपाल ने उन्हें महल में जाने की आज्ञा दे दी. महाराज ने पूछा –
“कहिए विप्रवर ! मैं आपकी क्या सहायता कर सकता हूँ?”
“कल एकादशी का व्रत था. आज उपवास खोलना है किन्तु आपसे इच्छित भोजन चाहता हूँ.”
“महात्मन ! आज्ञा दें, जैसे आज्ञा देंगे वही भोजन परोसा जाएगा .”
“न राजन ! यह कार्य आपके वश में नहीं.”
“आप ऐसा न कहें, मैं अपने प्राणों का बलिदान करके भी आपकी इच्छा पूरी करूंगा. मैं सब कुछ करने को तैयार हूँ. आप नि:संकोच अपने दिल की बात कहें.”
“आप व रानी पद्मावती दोनों मिल कर अपने पुत्र वृषकेतु का मांस काटकर मुझे खिलाएँ तभी मुझे तृप्ति होगी. वह मांस रानी ही पकाएंगी.”
कर्ण स्तब्ध हो उठा. इतना तो वह जान गया कि नर मांस खाने का लोभ किसी ब्राह्मण को नहीं होता. अवश्य ही कोई छद्य वेश में आया है किन्तु वह प्रकट में बोले –
“आपकी आज्ञा शिरोधार्य, महात्मन! आप मेरा मांस खाकर संतुष्ट हों.”
“न महाराज ! केवल वृषकेतु के मांस का आस्वादन करूँगा अन्यथा द्वार से रीता ही लौट जाउँगा.”
कर्ण के समक्ष और कोई उपाय न था. उसने विचार – “धर्म व व्रत के पालन के लिए सन्तान का बलिदान भी करना पड़े तो नि:संकोच क्र देना चाहिए हो सकता है ईश्वर ने वृषकेतु के भाग्य में यही लिखा हो. उसका शरीर यदि किसी ब्राह्मण की संतुष्टि का कारण बनता है तो वह भी स्वर्ग पाएगा.”
उन्होंने ब्राह्मण से कहा –
“आप स्नान- भजन के पश्चात् भोजन के लिए तैयार रहें. आपको आपका मनोवांछित भोजन ही मिलेगा.”
तत्पश्चात कर्ण अंत:पुर में पहुंचा. वहाँ पद्मावती व वृषकेतु किसी स्रोत का पाठ कर रहे थे. पतिव्रता स्त्री अपने पति के मनोभाव जान गई. उसे अनुभव हुआ कि पति अवश्य ही किसी गहरी समस्या से ग्रस्त हैं.
कर्ण ने वृषकेतु को पुचकार कर भोजन करवाने भेज दिया व पत्नी से सारी घटना कह सुनाई . पद्मावती बेहोश होकर गिर पड़ी एक माँ के कानों में इसी बात सुनाई दे तो वह कैसे सह सकती है? कर्ण ने उसे उठाया व कहा –
“तुम मोह त्याग कर मेरे धर्म को निभाओ. अतिथि तो देवता समान होता है. हम देवता की इच्छा का निरादर नहीं कर सकते.”
“ब्राह्मण को नरमांस का लोभ ! प्रभु कहीं आप मेरी परीक्षा तो नहीं ले रहे. मैं एक माँ होकर अपने ही बच्चे का मांस कैसे पकाऊ ? क्या यही दुष्कर्म मेरे भाग्य में बड़ा था ?”
पद्मावती के विलाप से अंत:पुर गूंज उठा. कुछ क्षण पश्चात् उसने स्वयं को संयत किया और पति से बोली –
“आप ब्राह्मण को सादर बिठाएँ मैं अभी आती हूँ.”
पद्मावती ने ध्यान लगा कर चित्त को शांत किया व समस्त मोह त्याग कर पुत्र वध के लिए प्रस्तुत हुई.
पति-पत्नी ने कसाईयों की भांति वृषकेतु के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए ब्राह्मण के आगे भोजन परोसा तो वह बोला –
“ वाह ! क्या बढिया सुगंध आ रही है. जाओ, बाहर से किसी बालक को बुला लाओ. पहला कौर उसे खिलाऊंगा.”
कर्ण बालक की खोज में बाहर गए तो देखा कि वृषकेतु बच्चों के साथ खेल रहा है. उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा.
ब्राह्मण के वेश में स्वयं नारायण कर्ण व उसकी पत्नी की परीक्षा लेने आए थे. पद्मावती ने पति-पत्नी की मर्यादा के पालन के लिए मातृत्व की सभी मर्यादाएँ तोड़ दीं व अपने अप्रतिम त्याग के बल पर संसार में अमर हो गई.
स्त्री के जीवन में मातृत्व से बड़ा सुख कोई नहीं होता.संसार में बुरी से बुरी स्त्री भी माता बन कर अपनी सन्तान का अमंगल नहीं चाहती.
वह कुपुत्र के भी सभी रोग-शोक अपने ऊपर ले लेना चाहती है किन्तु भारतीय परिवेश में ऐसी माताएँ भी हुई हैं जिन्होंने धर्म व वचन की रक्षा हेतु अपने प्रिय के प्राणोत्सर्ग करने में भी संकोच नहीं किया.
ऐसी ही स्त्रियाँ में माता पद्मावती का नाम आता है. यह महादानी कर्ण की पत्नी थीं.
कर्ण के द्वार से कोई भी याचक खाली हाथ नहीं लौटता था. यदि एक बार वह किसी वस्तु को देने की स्वीकृति दे देता तो उसे अवश्य देता.
एक दिन महाराज कर्ण दोपहर के भोजन के लिए निकलने लगे तो एक ब्राह्मण पधारे. द्वारपाल ने उन्हें महल में जाने की आज्ञा दे दी. महाराज ने पूछा –
“कहिए विप्रवर ! मैं आपकी क्या सहायता कर सकता हूँ?”
“कल एकादशी का व्रत था. आज उपवास खोलना है किन्तु आपसे इच्छित भोजन चाहता हूँ.”
“महात्मन ! आज्ञा दें, जैसे आज्ञा देंगे वही भोजन परोसा जाएगा .”
“न राजन ! यह कार्य आपके वश में नहीं.”
“आप ऐसा न कहें, मैं अपने प्राणों का बलिदान करके भी आपकी इच्छा पूरी करूंगा. मैं सब कुछ करने को तैयार हूँ. आप नि:संकोच अपने दिल की बात कहें.”
“आप व रानी पद्मावती दोनों मिल कर अपने पुत्र वृषकेतु का मांस काटकर मुझे खिलाएँ तभी मुझे तृप्ति होगी. वह मांस रानी ही पकाएंगी.”
कर्ण स्तब्ध हो उठा. इतना तो वह जान गया कि नर मांस खाने का लोभ किसी ब्राह्मण को नहीं होता. अवश्य ही कोई छद्य वेश में आया है किन्तु वह प्रकट में बोले –
“आपकी आज्ञा शिरोधार्य, महात्मन! आप मेरा मांस खाकर संतुष्ट हों.”
“न महाराज ! केवल वृषकेतु के मांस का आस्वादन करूँगा अन्यथा द्वार से रीता ही लौट जाउँगा.”
कर्ण के समक्ष और कोई उपाय न था. उसने विचार – “धर्म व व्रत के पालन के लिए सन्तान का बलिदान भी करना पड़े तो नि:संकोच क्र देना चाहिए हो सकता है ईश्वर ने वृषकेतु के भाग्य में यही लिखा हो. उसका शरीर यदि किसी ब्राह्मण की संतुष्टि का कारण बनता है तो वह भी स्वर्ग पाएगा.”
उन्होंने ब्राह्मण से कहा –
“आप स्नान- भजन के पश्चात् भोजन के लिए तैयार रहें. आपको आपका मनोवांछित भोजन ही मिलेगा.”
तत्पश्चात कर्ण अंत:पुर में पहुंचा. वहाँ पद्मावती व वृषकेतु किसी स्रोत का पाठ कर रहे थे. पतिव्रता स्त्री अपने पति के मनोभाव जान गई. उसे अनुभव हुआ कि पति अवश्य ही किसी गहरी समस्या से ग्रस्त हैं.
कर्ण ने वृषकेतु को पुचकार कर भोजन करवाने भेज दिया व पत्नी से सारी घटना कह सुनाई . पद्मावती बेहोश होकर गिर पड़ी एक माँ के कानों में इसी बात सुनाई दे तो वह कैसे सह सकती है? कर्ण ने उसे उठाया व कहा –
“तुम मोह त्याग कर मेरे धर्म को निभाओ. अतिथि तो देवता समान होता है. हम देवता की इच्छा का निरादर नहीं कर सकते.”
“ब्राह्मण को नरमांस का लोभ ! प्रभु कहीं आप मेरी परीक्षा तो नहीं ले रहे. मैं एक माँ होकर अपने ही बच्चे का मांस कैसे पकाऊ ? क्या यही दुष्कर्म मेरे भाग्य में बड़ा था ?”
पद्मावती के विलाप से अंत:पुर गूंज उठा. कुछ क्षण पश्चात् उसने स्वयं को संयत किया और पति से बोली –
“आप ब्राह्मण को सादर बिठाएँ मैं अभी आती हूँ.”
पद्मावती ने ध्यान लगा कर चित्त को शांत किया व समस्त मोह त्याग कर पुत्र वध के लिए प्रस्तुत हुई.
पति-पत्नी ने कसाईयों की भांति वृषकेतु के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए ब्राह्मण के आगे भोजन परोसा तो वह बोला –
“ वाह ! क्या बढिया सुगंध आ रही है. जाओ, बाहर से किसी बालक को बुला लाओ. पहला कौर उसे खिलाऊंगा.”
कर्ण बालक की खोज में बाहर गए तो देखा कि वृषकेतु बच्चों के साथ खेल रहा है. उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा.
ब्राह्मण के वेश में स्वयं नारायण कर्ण व उसकी पत्नी की परीक्षा लेने आए थे. पद्मावती ने पति-पत्नी की मर्यादा के पालन के लिए मातृत्व की सभी मर्यादाएँ तोड़ दीं व अपने अप्रतिम त्याग के बल पर संसार में अमर हो गई.
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